हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले

19 February 2013

- मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले
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